नई दिल्ली, 2 नवंबर (युआईटीवी/आईएएनएस)- बहुप्रतीक्षित रोशनी का त्योहार आने ही वाला है, जो शांति और समृद्धि का प्रतीक है। महामारी के दौरान लॉकडाउन के कारण लगे झटके के बाद अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने के साथ ही अब उत्साह बढ़ रहा है, जिसकी अपेक्षा भी की जा रही थी।
बीते वर्षों में, न केवल दिवाली की लोकप्रियता बढ़ी है, बल्कि इसके उत्सव के तरीके में भी काफी बदलाव आया है।
पटाखों का फोड़ना, जो कभी एक दुर्लभ घटनाक्रम होता था, अब एक आम घटना में बदल गया है। 19वीं शताब्दी तक, पटाखे महंगे होने के कारण, शासकों द्वारा अपने नागरिकों के मनोरंजन के लिए ही फोड़े जाते थे।
उस दौरान राज्य की भव्यता और समृद्धि की प्रदर्शनी के रूप में शाही विवाह समारोहों जैसे विशेष अवसरों पर आतिशबाजी शो आयोजित किए जाते थे।
आजादी के बाद ही आयातित पटाखों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, जिसके कारण तमिलनाडु के शिवकाशी में पहले पटाखा उद्योग का उदय हुआ।
इसके बाद, जैसे-जैसे पटाखे सस्ते होते गए और लोग अधिक समृद्ध होते गए, दीवाली पर पटाखे फोड़ने लगे।
हालांकि, हाल के वर्षों में, कुल वायु प्रदूषण का मात्र 5 प्रतिशत होने के बावजूद, हवा में धातुओं, धुएं और धूल का गुबार एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। वाहनों के उत्सर्जन, औद्योगिक गतिविधियों और निर्माण के कारण प्रदूषण का स्तर पहले से ही बहुत अधिक होने के कारण, पटाखे फोड़ने की कोई जगह नहीं बचती है।
इन जहरीले उत्पादों में हानिकारक पदार्थ होते हैं, जो इनके जलने पर 2.5 पीएम उत्पन्न करते हैं और पटाखों से पैदा होने वाला प्रदूषण हवा को जहरीला बना देता है, जिससे शुद्ध हवा के अभाव में पर्यावरण कुछ समय तक सांस लेने लायक नहीं रहता है।
वर्ष के इस समय के दौरान भारी हो चुकी हवा वायु की गुणवत्ता को और खराब कर देती है, जैसे कि पराली जलाने से भी होता है। पटाखा प्रदूषण और कृषि अवशेष जलाने से वायु की गुणवत्ता गंभीर और खतरनाक स्तर तक खराब हो जाती है, जिससे आबो-हवा गैस चैंबर में परिवर्तित हो जाती है।
फिर भी, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आतिशबाजी पर लगाए गए व्यापक प्रतिबंध के बावजूद, एक्यूआई (वायु गुणवत्ता सूचकांक) सामान्य से बहुत दूर है। इसका कारण पराली जलाना है, जो कई राज्य सरकारों के बीच विवाद का विषय बना हुआ है, जिनमें से सभी बिना किसी निश्चित सुधारात्मक कार्रवाई के लगातार निर्थक बहस में उलझे हुए हैं।
खराब नीतियों और प्रोत्साहनों की कमी के साथ, पराली जलाना बेरोकटोक जारी है। इसके लिए खाद्य उत्पादकों पर जुर्माना लगाने और उन्हें सलाखों के पीछे डालने से कोई फायदा नहीं होगा, बल्कि उन्हें पराली नहीं जलाने पर एक प्रकार की सब्सिडी देते हुए प्रोत्साहित करना ज्यादा सही होगा। हमारे अन्न भंडार में गेहूं और धान की भरमार होने के कारण, फसल पैटर्न पर फिर से गौर करने की आवश्यकता है।
हैप्पी सीडर, एक कटाई-सह-बुवाई ट्रैक्टर अधिकांश किसानों के लिए इसकी अत्यधिक लागत और मुख्य रूप से बड़े खेतों में उपयुक्तता के कारण पहुंच से दूर रहता है। इसके अलावा पराली को खाद में बदलने की एक लंबी प्रक्रिया है; अगली फसल के लिए खेत तैयार होने में लगभग 15-20 दिन लगते हैं और किसानों के पास इतने दिन खर्च करने की गुंजाइश नहीं होती है।
स्मॉग टावरों के साथ बीजिंग का खराब अनुभव स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि अलग-अलग स्थानों पर इसे स्थापित करने से करदाताओं के पैसे की बर्बादी से ज्यादा कुछ नहीं होगा। इसी तरह, ऑड-ईवन नियम लागू करना भी लंबे समय में एक लोकलुभावन नौटंकी से ज्यादा कुछ प्रतीत नहीं होता है।
हमारे फेफड़े, जो पहले से ही पिछले कई वर्षों से जहरीली हवा में सांस लेने से कमजोर हो गए हैं, को पिछले साल ही अत्यधिक संक्रामक कोविड-19 महामारी की शुरुआत के साथ एक और बड़ा झटका लगा।
कुछ लोग तो अभी भी कोविड के बाद की जटिलताओं से जूझ रहे हैं, जबकि अस्थमा, ब्रोंकाइटिस (कंठ की सूजन), सीओपीडी और अन्य श्वसन संबंधी रोग वाले लोग स्वच्छ हवा की हर छोटी मात्रा के लिए हांफ रहे हैं, जैसा पहले नहीं था।
दूसरी लहर के दौरान पूरे देश में ऑक्सीजन की कमी के भयानक दु:स्वप्न की यादें अभी भी ताजा है।
हाल के आंकड़ों से पता चलता है कि विश्व स्तर पर 20 सबसे प्रदूषित शहरों में से 11 भारत में हैं; कोई आश्चर्य नहीं कि दुनिया के इस हिस्से में वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों की संख्या 20 लाख है।
इस जहरीली आबो-हवा में सांस लेने के लिए हांफते हुए, हमें वायु प्रदूषण नियंत्रण नीति में बदलाव की सख्त जरूरत है।
इस बीच, जिस तरह से मैंने बाजारों में उत्सव के मौके पर भीड़ देखी है, बिना मास्क वाले चेहरे मुझे और आशंकित कर रहे हैं।
दुनिया भर में, रूस में कोरोनावायरस के कारण मौतें रिकॉर्ड तोड़ रही हैं; ब्रिटेन में कोविड-19 का डेल्टा-प्लस वैरिएंट कहर बरपा रहा है। क्या यह तीसरी लहर का संकेत है? यह तो केवल समय ही बताएगा।
एक महिला किसी अजनबी को उसका मास्क ठीक से न पहनने के लिए डांटती है, तो मेरे चिंतित चेहरे पर आशा की एक छोटी सी किरण लौट आती है। उम्मीद है कि अगली दिवाली कुछ अलग होगी।