नई दिल्ली,8 नवंबर (युआईटीवी)- सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के अल्पसंख्यक दर्जे को बरकरार रखते हुए बड़ा और ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। कोर्ट ने शुक्रवार को पुराने फैसले को 4-3 के बहुमत से पलट दिया, जिससे यह साबित हो गया कि यह विश्वविद्यालय अपने अल्पसंख्यक दर्जे के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के 7 जजों की बेंच ने स्पष्ट रूप से कहा कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान के तौर पर अपनी स्थिति बनाए रखने का अधिकार है। इस फैसले के बाद अब तीन जजों की एक और बेंच को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वह नए फैसले में दिए गए सिद्धांतों के आधार पर एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का पुनः निर्धारण करें।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय खासकर उन छात्रों के लिए महत्वपूर्ण है जो इस फैसले के पक्ष में थे। एएमयू के छात्र और प्रबंधक इस फैसले से खुश हैं,क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे उनकी शैक्षिक और सांस्कृतिक पहचान को संरक्षण मिलेगा। मोहम्मद सादिक नामक छात्र ने कहा कि,”सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से हमें बहुत खुशी हुई है। हमें उम्मीद थी कि कोर्ट हमारे हक में फैसला देगा और ऐसा ही हुआ।” वहीं, एक अन्य छात्र ने इसे संविधान के तहत उनके अधिकार का सम्मान माना और कहा कि संविधान हमें यह अधिकार देता है कि हम अपने अल्पसंख्यक दर्जे को बनाए रखें।
हालाँकि,इस फैसले पर जजों की राय में मतभेद था। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़,जेडी पारदीवाला,न्यायमूर्ति संजीव खन्ना तथा न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा फैसले के पक्ष में थे। संविधान के अनुच्छेद 30 के मुताबिक,भारत के मुख्य मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ में से खुद सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़,जेडी पारदीवाला,न्यायमूर्ति संजीव खन्ना तथा न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने ‘एएमयू’ के अल्पसंख्यक संस्थान के दर्जे को बरकरार रखने के पक्ष में फैसला दिया है। वहीं जस्टिस सूर्यकांत,जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एससी शर्मा का मत इसके विपरीत था। इन तीन जजों का मानना था कि एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने का कोई कानूनी आधार नहीं है।
भारत के मुख्य मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि संस्थान की स्थापना कोई भी धार्मिक समुदाय कर तो सकता है,लेकिन वे उसे चला नहीं सकते हैं। सरकारी नियमों के मुताबिक संस्थान की स्थापना की जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) अल्पसंख्यक दर्जे का हकदार है।
यह निर्णय केंद्र सरकार के लिए एक चुनौती भी हो सकता है,जो कई बार अल्पसंख्यक संस्थानों के मुद्दे पर तुष्टिकरण की राजनीति करने का आरोप लगाती रही है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बताता है कि देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था ने संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक अधिकारों को प्रमुखता दी है और किसी भी राजनीतिक दबाव को दरकिनार करते हुए न्याय किया है।
इस फैसले के बाद एएमयू और उसकी पहचान को लेकर किसी भी तरह के संशय को समाप्त किया गया है। यह कोर्ट का एक मजबूत संदेश है कि शिक्षा और समाज के क्षेत्र में समानता और स्वतंत्रता की भावना को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, न कि राजनीति और तात्कालिक लाभ के लिए इसे विकृत किया जाना चाहिए।
साल 1968 में सुप्रीम कोर्ट ने एस. अजीज बाशा बनाम भारत संघ के मामले में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) को केंद्रीय विश्वविद्यालय के रूप में मान्यता दी थी। हालाँकि,1981 में एएमयू अधिनियम,1920 में संशोधन करके इस संस्थान के अल्पसंख्यक दर्जा को फिर से बहाल कर दिया गया। इसके बाद,इलाहाबाद हाई कोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी गई और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया।
यदि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा समाप्त करने का फैसला करता है,तो इसका प्रभाव सीधे तौर पर विश्वविद्यालय में एससी/एसटी और ओबीसी कोटे के लागू होने पर पड़ेगा। साथ ही, इस फैसले का असर जामिया मिलिया इस्लामिया पर भी हो सकता है, क्योंकि यह भी एक अल्पसंख्यक दर्जे वाला संस्थान है।
इसलिए, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल एएमयू, बल्कि अन्य समान संस्थानों के लिए भी महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।