कृषि

बगैर एमएसपी वाली फसलें देती हैं किसानों को ज्यादा मुनाफा!

नई दिल्ली, 2 मार्च (युआईटीवी/आईएएनएस)- बासमती चावल से लेकर चाय, कहवा, तंबाकू समेत कई ऐसी फसलें हैं जिनके लिए कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) नहीं है। इन फसलों के उचित लाभकारी दाम के लिए किसान फसल विशेष से जुड़े उद्योग की मांग पर आश्रित रहते हैं जोकि अंतिम रूप से घरेलू खपत और निर्यात मांग पर निर्भर होती है। विशेषज्ञ बताते हैं कि इन फसलों की खेती मुनाफे का सौदा है क्योंकि इन कृषि उत्पादों का देश से निर्यात होता है और अंतराष्ट्रीय बाजार में इनकी अपनी खास पहचान है।

केंद्र सरकार हर साल 23 फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा करती है। सरकारी एजेंसियां गेहूं, चावल, कुछ दलहनी व तिलहनी फसलों के साथ-साथ कपास सीधे किसानों से एमएसपी पर खरीदती भी हैं। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) की जरूरतों को पूरा करने के लिए भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के माध्यम से चावल और गेहूं की सरकारी खरीद देश के तकरीबन सभी उत्पादक राज्यों में होती है। दलहनी व तिलहनी फसलों का भाव अगर किसी उत्पादक राज्य में एमएसपी से नीचे आ जाता है तो वहां केंद्र सरकार की ही एजेंसी नैफेड के माध्यम से किसानों से सीधी खरीद की व्यवस्था की जाती है। वहीं, भारतीय कपास निगम (सीसीआई) तय एमएसपी पर किसानों से कपास खरीदती है। मगर, पूरे देश के किसानों को एमएसपी का लाभ नहीं मिल पाता है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार की अध्यक्षता में गठित एक कमेटी ने अपनी सिफारिश में कहा है कि देश में सिर्फ छह फीसदी किसानों को एमएसपी का लाभ मिलता है।

हालांकि कृषि विशेषज्ञ बताते हैं कि विगत कुछ वर्षों में एमएसपी पर विभिन्न फसलों की खरीददारी देशभर में बढ़ी है इसलिए इस आंकड़े में थोड़ी बढ़ोतरी जरूर हुई होगी, फिर भी अधिकांश किसान एमएसपी के लाभ से वंचित रहते हैं।

नये कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन की राह पकड़े किसानों की अगुवाई करने वाले यूनियनों के नेता कहते हैं कि इसी कारण से वे एमएसपी पर खरीद की गारंटी के लिए नये कानून की मांग कर रहे हैं ताकि पूरे देश के किसानों को इसका लाभ मिल सके।

जाहिर है कि जब एमएसपी को अनिवार्य बनाने के लिए कानून बनेगा तो वह कानून निजी कारोबारियों, प्रसंस्करणकर्ताओं पर भी बाध्यकारी होगा।

मगर, भारत में गन्ना एक उदाहरण है जिसकी खरीद चीनी मिलों के लिए सरकार द्वारा तय लाभकारी मूल्य (एफआरपी) पर करना अनिवार्य है। भारत विगत कुछ वर्षों से चीनी का उत्पादन अपनी खपत जरूरत से ज्यादा कर रहा है, लेकिन एफआरपी की वजह से उत्पादन लागत ज्यादा हो जाने से निर्यात मुश्किल हो जाता है इसलिए सरकार मिलों को चीनी निर्यात पर अनुदान दे रही है। इसके बावजूद गन्ना उत्पादकों को समय पर गन्ने के दाम का भुगतान नहीं हो पा रहा है।

किसानों से सारी फसलें एमएसपी पर खरीद को लेकर सरकार पहले ही अपनी विवशता जता चुकी है। विशेषज्ञ बताते हैं कि बासमती चावल का कोई एमएसपी नहीं है, फिर भी किसानों को इसका लाभकारी दाम मिलता है। इसी प्रकार, पोल्ट्री उत्पाद या दूध का कोई एमएसपी नहीं है लेकिन चावल और गेहूं की खेती से ज्यादा मुनाफा किसानों को पोल्ट्री व डेयरी कारोबार से होता है क्योंकि इनसे जुड़े उद्योग को मालूम है कि किसानों को लाभ होगा तभी वे पशुपालन व कुक्कुटपालन में दिलचस्पी लेंगे और उनका कारोबार चलेगा।

बाजार विशेषज्ञ कहते हैं कि एमएसपी के कारण भारत में कृषि फसलों के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाजार के मुकाबले ज्यादा हो जाते हैं जिससे इन उत्पादों का निर्यात करना मुश्किल हो जाता है। उनका कहना है कि एमएसपी से न सिर्फ निर्यात करना मुश्किल होता है बल्कि देश में भी खाद्य पदार्थों की महंगाई से उपभोक्ताओं की परेशानी बढ़ जाती है।

मंडी के व्यापारी कहते हैं कि कभी-कभी सरकारी एजेंसियां दाल व अन्य फसलें एमएसपी पर खरीदकर जब कम भाव में बेचती हैं तो कारोबारियों को नुकसान उठाना पड़ता है।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के महानिदेशक डॉ. त्रिलोचन महापात्र बताते हैं कि नये कृषि कानून से कृषि और संबद्ध क्षेत्र में निजी निवेश होगा और देश में प्रसंस्करण उद्योग को बढ़ावा मिलेगा जिससे आज सब्जियों, फलों, फूलों से लेकर तमाम उपज के लिए किसानों को लाभकारी भाव मिलना सुनिश्चित होगा। नये कृषि कानूनों के विरोध को लेकर पूछे गए सवाल पर डॉ. महापात्र ने कहा कि 1991 में भी आर्थिक सुधार का पुरजोर विरोध हुआ था, मगर आज आज उसकी सराहना हो रही है, उसी प्रकार कृषि सुधार के भी आने वाले दिनों में नतीजे देखने को मिलेंगे। उन्होंने कहा कि प्रसंस्करण जब बढ़ेगा तो किसानों का जिन फसलों का अच्छा भाव मिलेगा उसकी खेती में उनकी दिलचस्पी बढ़ेगी।

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